बचपन
मोबाइल और टीवी के आने से पहला जो बचपना होता था वही सही मायने में बचपना होता था, संयुक्त परिवार होते थे, ताया - ताई, चाचा - चाची, दादा - दादी होते थे। उनके प्यार दुलार में बचपन बीतता था। कितना अच्छा लगता था जब घर के बढ़े बच्चों के लिए घोड़ा बन जाते थे , कोई गोद में उठाकर घूमने ले जाता था , कोई प्यार से खाने वाली चीजें खिला देता था , जब नींद आती थी तो किसी की भी गोद में सो जाया करते थे। घर की माताएं बढ़े बच्चों को कपड़े पहना देती थी , कोई बचा ज़िद नहीं करता था की यह नहीं पहनना है , वह नहीं पहनना है। प्राइमरी स्कूल तक ऐसा ही चलता था।
घर के बढ़े बच्चों के किताबें, कपड़े , जूते , बस्ते छोटे बच्चों को दे दिए जाते थे , बच्चे भी ख़ुशी ख़ुशी पाठशाला चले जाते थे, क्यूंकि आस पड़ोस के बच्चों का भी यही हाल होता था। उनके घर में भी यही माहौल होता था , प्रायः सभी बच्चें पैदल ही पाठशाला जाया करते थे और शालाओं में सभी बच्चे नीचे टाट-पट्टी पर ही बैठा करते थे।
शिक्षक भी सभी बच्चों के साथ समानता का भाव रखते थे। कोई टूशन नहीं कोई कोचिंग नहीं। फिर भी बच्चे पढ़ने में होशियार होते थे क्यूंकि घर में बढ़े बच्चे या चाचा - चाची उनकी पढ़ा में मदत कर देते थे। मगर आजकल के बच्चों का बचपन इन सब से दूर टीवी , मोबाइल से शुरू होता है, थोड़ा बढ़े होते हैं तो कार्टून देखना है, कुछ और बढ़े हुए तो प्ले स्कूल में जाना है, फिर नर्सरी, केजी स्कूल में जाना है। घर का माहौल भी संयुक्त परिवार वाला नहीं है। बचपन तो पहले वाला था अब तो टीवी, मोबाइल की पढ़ाई वाला हो गया है।